Shradh Rituals

Shradh Rituals

Shraadha or Pitru Tarpana is a ritual where we offer food to our ancestors who have died. It is a ceremony that is performed at least once a year (Shraadha is performed once a year, while Pitru Tarpana is performed on every new moon day).


The question of performing the ritual is necessary or not, was asked by Garuda to Lord Vishnu, as seen in Garuda Purana. The answer is as follow:

The ancestors are pleased when the ascendant offers the prayers and food for them. They wish him and his family good deeds. This creates happiness in the family.

When he don’t offer the prayers and food, the ancestors are not happy (not angry, but sad) and that impacts the ascendant and his family by creating an unhappy situation in the family. Negative things like frequent quarrels, loss of property, loss of health, etc. happen in the family.

वेद अनुसार श्राद्ध

 

वेदानुसार यज्ञ 5 प्रकार के होते हैं- 1. ब्रह्म यज्ञ, 2. देवयज्ञ, 3. पितृयज्ञ, 4. वैश्वदेव यज्ञ, 5. अतिथि यज्ञ। उक्त 5 यज्ञों को पुराणों और अन्य ग्रंथों में विस्तार दिया गया है। उक्त 5 यज्ञों में से ही एक यज्ञ है पितृयज्ञ। इसे पुराण में श्राद्ध कर्म की संज्ञा दी गई है।

वेदों के इसी पितृयज्ञ को पुराणों में विस्तार दिया गया है। वेदों में पितृयज्ञ के संपूर्ण कर्मकांड के सांकेतिक प्रमाण मिलते हैं लेकिन वह स्पष्ट नहीं है। वेद पितरों की बात तो करते हैं लेकिन उनके श्राद्धकर्म करने को लेकर अस्पष्टता है। वेद में अधिकतर जगह यज्ञ का ही वर्णन मिलता है।

‘हे अग्नि! हमारे श्रेष्ठ सनातन यज्ञ को संपन्न करने वाले पितरों ने जैसे देहांत होने पर श्रेष्ठ ऐश्वर्य वाले स्वर्ग को प्राप्त किया है, वैसे ही यज्ञों में इन ऋचाओं का पाठ करते हुए और समस्त साधनों से यज्ञ करते हुए हम भी उसी ऐश्वर्यवान स्वर्ग को प्राप्त करें।’ -यजुर्वेद

यजुर्वेद में कहा गया है कि शरीर छोड़ने के पश्चात जिन्होंने तप-ध्यान किया है, वे ब्रह्मलोक चले जाते हैं अर्थात ब्रह्मलीन हो जाते हैं। कुछ सत्कर्म करने वाले भक्तजन स्वर्ग चले जाते हैं। स्वर्ग अर्थात वे देव बन जाते हैं। राक्षसी कर्म करने वाले कुछ प्रेत योनि में अनंतकाल तक भटकते रहते हैं और कुछ पुन: धरती पर जन्म ले लेते हैं। जन्म लेने वालों में भी जरूरी नहीं कि वे मनुष्य योनि में ही जन्म लें।

विद्वानों के अनुसार वेद में अधिकतर जगह सत्य और श्रद्धा से किए गए कर्म श्राद्ध और जिस कर्म से माता-पिता और आचार्य तृप्त हो, वह तर्पण है। वेदों में श्राद्ध को पितृयज्ञ कहा गया है। यह श्राद्ध-तर्पण हमारे पूर्वजों, माता-पिता और आचार्य के प्रति सम्मान का भाव है। यह पितृयज्ञ संपन्न होता है संतानोत्पत्ति और संतान की सही शिक्षा-दीक्षा से। इसी से ‘पितृ ऋण’ भी चुकता होता है।

हालांकि अथर्ववेद में श्राद्ध कर्म करने का उल्लेख जरूर मिलता है।
अहमेवास्म्यमावास्या… समगच्छन्त सर्वे।। -अथर्व 7/79/2
अर्थात सूर्य-चन्द्र दोनों अमा साथ-साथ बसते हों, वह तिथि अमावस्या मैं हूं। मुझमें सब साध्यगण, पितृविशेष और इन्द्र प्रभृति देवता इकट्ठे होते हैं।

परा यात पितर… अधा मासि पुनरा यात नो गृहान्…।। -अथर्व18/4/63

अर्थात हे सोमपानकर्ता पितृगण! आप अपने पितृलोक के गंभीर असाध्य पितृयाण मार्गों से अपने लोक को जाएं। मास की पूर्णता पर अमावस्या के दिन हविष्य का सेवन करने के लिए हमारे घरों में आप पुन: आएं। हे पितृगण! आप ही हमें उत्तम प्रजा और श्रेष्ठ संतति प्रदान करने में सक्षम हैं।

आश्विन माह में पितृपक्ष के बारे में वेद का कथन है:-
सर्वास्ता अव रुन्धे स्वर्ग: षष्ट्यां शरत्सु निधिपा अभीच्छात्।। -अथर्व 12/3/41
शरद ऋतु में छठी संक्रांति कन्यार्क में जो अभीप्सित वस्तुएं पितरों को प्रदान की जाती हैं, वे सब स्वर्ग को देने वाली होती हैं।

वेद कहता है: -ये न: पितु: पितरो ये पितामहा… तेभ्य: पितृभ्यो नमसा विधेम।। -अथर्व 18/2/49
अर्थात पितृ, पितामह और प्रपितामहों को हम श्राद्ध से तृप्त करते हैं और नमन करते हुए उनकी पूजा-अर्चना करते हैं।

इस प्रकार वेदों में पितृयज्ञ के संपूर्ण विधान की महत्ता और दिव्यता का वर्णन मिलता है। आगे चलकर पुराण और संस्मृतियों में वेद आधारित श्राद्धकर्म की विधि को 4 तरह से संपन्न करना बताया गया। ये कर्म हैं- हवन, पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोजन।